Description
“क्या मैं ज़िंदा हूँ?” — यह सिर्फ़ एक सवाल नहीं, बल्कि हर उस इंसान की आवाज़ है जो बाहर से मुस्कुराता है लेकिन अंदर से टूट चुका है।
यह किताब उन पलों को छूती है जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं —
👉 जब हम “सब ठीक है” बोलते हैं, जबकि अंदर से सब बिखरा होता है।
👉 जब हमारी चुप्पी कोई नहीं सुनता।
👉 जब रिश्ते, सपने और उम्मीदें हमें थकाने लगती हैं।
इस किताब के हर अध्याय में आपको ज़िंदगी का आईना मिलेगा —
अधूरी इच्छाएँ,
अनसुनी आवाज़ें,
दबे हुए आँसू,
और वो सवाल, जिन्हें हम खुद से भी पूछने से डरते हैं।
यह किताब आपको सोचने पर मजबूर करेगी कि —
“क्या आप सच में जी रहे हैं, या बस ज़िंदा दिख रहे हैं?”
अगर आपने कभी अकेलापन, थकान, या अपने भीतर की खामोशी महसूस की है, तो यह किताब आपको आपके ही दिल की गहराइयों तक ले जाएगी।





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